
दिल्लीवालों की सुबह की सैर में दो चीज़ें तय होती थीं — नीम की छांव और कुत्तों की दहाड़।
अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा — “बस बहुत हुआ! नसबंदी करो, शेल्टर भेजो, और गली को गली ही रहने दो।”
28 जुलाई 2025 के इस आदेश से दिल्ली की गलियों में जैसे कोई आदालत की व्हिसल बज गई। पर इस आदेश से मानवता की रक्षा के साथ-साथ कुत्तों की आज़ादी का मुद्दा भी उठ खड़ा हुआ।
कुत्ते बोले – “हमको क्यूँ निकाला?”
जब कुत्तों ने ये सुना कि उन्हें पकड़ कर शेल्टर में डाला जाएगा, तो कई मोहल्लों के ‘शेरू’, ‘टोमी’ और ‘सुल्तान’ ने संयुक्त बयान जारी किया — “हम रोज़ाना सिर्फ दो आदमी काटते हैं, वो भी प्रोफेशनल जिम्मेदारी के तहत! हमें आतंकवादी मत समझो।”
उधर एनिमल एक्टिविस्ट बोले — “कुत्ते काटते हैं, पर सिस्टम तो रोज़ खाता है… उससे क्या कोर्ट पूछेगा?”
गांधीजी की 1926 वाली “डॉगी लीला”: जब ‘अहिंसा’ ने ब्रेक लिया
अब बात इतिहास की। जब गांधीजी ने भी 60 पागल कुत्तों को मारने की इजाज़त दी थी, तो लगा था कि उनकी छड़ी भी ज़रूरत पर ‘छड़’ बन सकती है।
1926 में अहमदाबाद की कपड़ा मिल के इलाके में कुत्तों का आतंक कुछ यूं था जैसे IPL में CSK की फॉर्म – लगातार, तेज़ और बिना चेतावनी के। अंबालाल साराभाई ने फैसला लिया: “मारो इनको” लोग भड़क उठे। फिर वो पहुंचे सीधे साबरमती आश्रम — गांधीजी बोले, “ये हत्या नहीं, समाज रक्षा है। अगर पागल कुत्ता काटता है, तो रोकना ही पड़ेगा। वरना ये ‘पाप’ होगा।”
और तबसे आज तक हर कुत्ता सोचता है — “मेरे काटने से क्या मेरा जीवन अधिकार चला जाता है?”
गांधीजी का लॉजिक: “अहिंसा का मतलब ये नहीं कि काटने दो!”
‘Young India’ में गांधीजी ने अपना पूरा स्पष्टीकरण दिया।
उनका कहना था, “कभी-कभी प्राण लेने की इजाज़त देना भी अहिंसा की सेवा होती है। अगर कोई प्राणी समाज के लिए खतरनाक हो गया है, तो उसे हटाना न्याय है।”
तो ज़रा सोचिए —गांधीजी अगर आज ट्विटर पर होते, तो ट्रेंड क्या होता?
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#MahatmaGoneMad
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#GandhiKillsDogs
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या फिर #BapuForBalance
इतिहास का डॉग-शो: जब सरकारें कुत्तों से डर गईं
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1832 Bombay Dog Riots: ब्रिटिशों ने कुत्ते मारे, पारसी बोले — “Not on our watch!” और दंगे भड़क उठे।
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ब्रिटिश इंडिया: बाघ को ‘हानिकारक जीव’ समझा गया, कुत्तों को तो पूछो मत।
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मद्रास (1960-90): यहां के कुत्तों ने शायद सबसे ज्यादा सहा — करंट, ज़हर, लाठी।
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अवनी बाघिन केस (2018): बाघिन मरी, इंसाफ पर सवाल उठे — वन्यजीवन बनाम मानवीय डर का क्लासिक केस।
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नीलगाय डिबेट: किसान बोले — “ये नीली नहीं, फसल की काली मौत है!” सरकारों ने ‘उड़ता तीर’ नहीं, ‘चलती गोली’ अपनाई।
अब फिर दिल्ली में वही पुराना सवाल: इंसान पहले या पशु अधिकार?
एक तरफ – अस्पतालों में रेबीज के मरीज बढ़ रहे हैं, न्यूज़ हेडलाइंस कहती हैं – “5 साल की बच्ची पर आवारा कुत्तों का हमला!”
दूसरी तरफ – सोशल मीडिया पर “कुत्ते भी जीव हैं, प्यार दो, गोली नहीं!” का ट्रेंड चल रहा है। मतलब – जनता कंफ्यूज, नेता साइलेंट और कोर्ट एक्टिव!
क्या हो रही है तैयारी?
दिल्ली नगर निगम अब:
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डॉग शेल्टर बना रहा है
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हेल्पलाइन शुरू कर रहा है
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हर शिकायत पर 4 घंटे में रेस्पॉन्स दे रहा है (जो शायद म्युनिसिपल इतिहास में पहली बार होगा)
लेकिन सवाल अभी भी लटक रहा है — “समस्या का समाधान गोली नहीं, गवर्नेंस है।”
क्या जन सुरक्षा और पशु अधिकार साथ चल सकते हैं?
जवाब आसान नहीं है। अगर आप रोज़ सुबह डर के मारे बाहर नहीं निकल पा रहे हों तो आप कहेंगे — “सभी कुत्तों को हटाओ!”
अगर आप पशुप्रेमी हैं तो कहेंगे —“मानवता का मतलब सिर्फ मानव नहीं होता!”
और अगर आप नेता हैं तो कहेंगे — “हम मामले को देख रहे हैं।” (और चुनाव के बाद भूल जाएंगे)
“गांधीजी की सीख या गली का सीख कबाब – कौन सही?”
इस बहस का कोई सीधा जवाब नहीं है। गांधीजी ने भी कहा था — “हर निर्णय सच्चाई और ज़िम्मेदारी के बीच का पुल होता है।”
दिल्ली की सड़कों से उठी ये कुत्तों वाली बहस अब सीधे हमारी संवेदना और समझदारी से टकरा रही है।